धुंध - A poetry on current situations



 










जो दिखता है वो सच है 
या समय की मांग 
मानो जाड़े के आने से 
एक धुंध सी लगी हो 
जिसने सबकुछ ढंक रखा हो 
अपने बाँहो में 
सिर्फ सामने जो है 
वही दिखता हो 
और जो सामने दिखता है 
वह है स्वार्थ में लिपटे असंख्य लोग 
जिन्होंने पल-पल को बाँट रखा है 
फायदे और नुकसान के तराज़ू से
इस दृष्य में व्यग्रता है 
और छटपटाहट 
सब भागने में लगे है 
किस ओर और क्यूँ 
मालूम नही 
सबसे बड़ी व्यथा ये है 
की प्रेम की परिभाषा बदल गयी है 
या प्रेम करने की सोच 
पर अजीव बदलाव है ये 
लेन देन के फेर में 
हर समीकरण बदल गया है
लोग पूरी जिंदगी की ख़ुशी 
एक पल में हांसिल कर लेना चाहते है 
इंसान मृत्यु के डर से घबरा गया है 
या ज्यादा चतुर हो गया है 
ज्ञात नही, 
परन्तु एक बात है-
जो लोग सोच बैठे है 
सालो का 
उन्हें ज़रा भी अंदाज़ा नही 
आनेवाला पल में क्या होगा 
क्योंकि 
इंसान भले ही स्वयं को सर्वज्ञानी समझे 
प्रकृति से परे स्वंय देव भी नही

फिर भी विश्वास है 
वक़्त बदलेगा 
और समय की मांग भी 
फिर यह धुंध छंट जाएगी 
उस दिन सब साफ नजर आएगा। 

-चंचल साक्षी 
10/01/2016 

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