कविता शीर्षक: मैं स्त्री हूँ













अक्सर हम सुनते हैं नारी को कौन समझ सकता हैं ! एक हद तक सच भी हैं स्त्री जीवन के अनेक आयाम हैं जिन्हे समझना सभी के लिए आसान कहाँ। स्त्री को समझने के लिए एक कविता मैं संलग्न करना चाहती हूँ। यह कविता स्त्री जीवन के चाहत/वज़ूद और जिम्मेदारियों को उजागर करती हैं।  
----(१)-----
मैं कवि हूँ। 
रेशा-रेशा से कविता बनाने की मेरी आदत है ।।

मैं राही हूँ। 
आगे बढ़ते जाने की मेरी आदत है।।   

मैं प्रेमीका हूँ। 
प्रीत की रंग में रंग जाने की मेरी आदत है ।।

मैं जीवन हूँ। 
कठिनाई से निकलकर मुस्कुराने की मेरी आदत है ।।

मैं विश्वास हूँ। 
अटल रहने की मेरी आदत है ।।

मैं चमक हूँ। 
सूने आँखों की आशा बनने की मेरी आदत है ।।   

मैं गीत हूँ। 
कोयल की कूह सी दिल में उतर जाने की मेरी आदत है ।।

मैं  गीतकार हूँ। 
धुनों की माला में शब्दों की मोती पिरोने की मेरी आदत है ।।

मैं पल हूँ। 
आकर चले जाने की मेरी आदत है ।।

मैं दीप हूँ। 
अंधेरा दूर भगाने की मेरी आदत है ।।

मैं प्रेरणा हूँ
आगे बढ़ते रहने की मेरी आदत है

मैं उम्मीद हूँ
टूट कर जुड़ जाने की मेरी आदत है

मैं आवाज हूँ। 
जुल्मों को न सहने की मेरी आदत है ।।

मैं ख़ुशी हूँ। 
छोटी-छोटी बातो पर मुस्कुराने की मेरी आदत है ।।

मैं उत्सुकता हूँ। 
सवाल करते रहने की मेरी आदत है ।।

मैं पंछी हूँ। 
स्वछन्द विचरण की मेरी आदत है ।।

मैं श्रृंगार हूँ। 
खूबसूरत बने रहने की मेरी आदत है ।।

मैं धारा हूँ। 
निरन्तर बहते रहने की मेरी आदत है ।।

मैं भावना हूँ। 
सहज़ संवेदना जताने की मेरी आदत है ।।

मैं स्पर्श हूँ। 
अपनापन दर्शाने की मेरी आदत है ।।

मैं नारी हूँ। 
अपना अधिकार बचाने की मेरी आदत है ।।

------(२)------

 मैं पीड़ा हूँ। 
दर्द में जीने की मेरी आदत है ।।

मैं गाथा हूँ। 
 कहे-सुने जाने की मेरी आदत है ।।

मैं शक्ति हूँ। 
कमजोर पलो में अटूट रहने की मेरी आदत है ।।

मैं बेटी हूँ। 
माँ की नाज़ होने की मेरी आदत है ।।

मैं बहन हूँ। 
भैया की लाड़ली होने की मेरी आदत है ।।

मैं दोस्त हूँ। 
सुख-दुःख साझा करने की मेरी आदत है ।।

मैं पराया धन हूँ। 
दूजे घर जाने की मेरी आदत है ।।

मैं प्रेमिका हूँ। 
रीत छोर प्रीत निभाने की मेरी आदत है ।।

मैं पत्नी हूँ। 
पति पर सर्वस्व न्योछावर करने की मेरी आदत है ।।

मैं प्रतीक्षा हूँ। 
राह देखने की मेरी आदत है ।।

मैं क्षमा हूँ। 
अक्षम्य पलो को भूल जाने की मेरी आदत है ।।

मैं ज़िद हूँ। 
पति के साथ के लिए लड़ जाने की मेरी आदत है ।।

मैं गृहिणी हूँ। 
घर-संसार सजाने की मेरी आदत है ।।

मैं कला हूँ। 
रिस्तो में रंग भरने की मेरी आदत है ।।

मैं बहू हूँ। 
परंपरा आगे बढ़ाने की मेरी आदत है ।।

मैं मूर्ति हूँ। 
मूक बने रहने की मेरी आदत है ।।

मैं भाभी हूँ। 
तंज को हंस के टाल जाने की मेरी आदत है ।।

मैं धरोहर हूँ। 
रिवाज़ आगे बढ़ाने की मेरी आदत है ।।

मैं माँ हूँ। 
ममता लुटाने की मेरी आदत है ।।

मैं वक़्त हूँ। 
साथ निभाने की मेरी आदत है ।।

मैं स्त्री हूँ। 
फ़र्ज निभाते मर जाने की मेरी आदत है ।।

 -चंचल सिंह साक्षी 
इंदिरापुरम, ग़ाज़िआबाद, उत्तर प्रदेश 

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